भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
की आँखों की नग्नता अँकुराती है.
पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है.<br />
यहीं से दुनियाँ के फलसफ़े का सिरा<br />
एहसास कराती है.
'''रचनाकाल''': 20/01जनवरी/1996