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[[Category:लम्बी कविता]]
[[बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग ३|<< पिछला भाग]]
<poem>उमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से,<br>घर से क्रीड़ारत बालक-से,<br>ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार !<br>स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार !<br>अन्धकार-- घन अन्धकार ही<br>क्रीड़ा का आगार।<br>चौंक चमक छिप जाती विद्युत<br>तडिद्दाम अभिराम,<br>तुम्हारे कुंचित केशों में<br>अधीर विक्षुब्ध ताल पर<br>एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम।<br>वर्ण रश्मियों-से कितने ही<br>छा जाते हैं मुख पर--<br>जग के अंतस्थल से उमड़<br>नयन पलकों पर छाये सुख पर;<br>रंग अपार<br>किरण तूलिकाओं से अंकित<br>इन्द्रधनुष के सप्तक, तार; --<br>व्योम और जगती के राग उदार<br>मध्यदेश में, गुडाकेश !<br>गाते हो वारम्वार।<br>मुक्त ! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में<br>स्वरारोह, अवरोह, विघात,<br>मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि<br>छा लेती है गगन, श्याम कानन,<br>सुरभित उद्यान, <br> झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात।<br>वधिर विश्व के कानों में<br>भरते हो अपना राग,<br>मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग। <br/poem><br>(कविता संग्रह, "परिमल" से)
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