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नदी / रवीन्द्र प्रभात

2,372 bytes added, 06:55, 4 फ़रवरी 2010
कविता
उम्र के-

एक पड़ाव के बाद

अल्हड़ हो जाती नदी

ऊँचाई-निचाई की परवाह के बग़ैर

लाँघ जाती परम्परागत भूगोल

हहराती- घहराती

धड़का जाती गाँव का दिल

बेँध जाती शिलाखंडों के पोर -पोर

अपने सुरमई सौंदर्य, भंवर का वेग

और, विस्तार की स्वतंत्रता के कारण...!

आक्रोशित हो जाती नदी

एक पड़ाव के बाद

जब बर्दाश्त नहीं कर पाती

पुर्वा - पछुवा का दिलफेंक अंदाज़

बहक कर बादलों का उमड़ना - घुमड़ना

और, ठेकेदारों का

बढ़ता हुआ हाथ अपनी ओर

तब, निगल जाती अचानक

सारा का सारा गाँव

व्याघ्रमती की तरह...!

ब्याही जाती नदी

एक पड़ाव के बाद.

जब होता उसे औरत होने का एहसास

ख़ामोश हो जाती वह

भावुकता की हद तक

समेट लेती ख़ुद को

पवित्रता की सीमा के भीतर

खोंइचा से लुटाती

कुछ दोमट -बालू

और निकल जाती

अपने गंतव्य की ओर

पिता शिव को प्रणाम कर...!


समा जाती नदी समुंदर के आगोश में

एक पड़ाव के बाद

बंद कर लेती किवाड़ यकायक

छोड़ जाती स्मृतियों के रूप में

अनवरत बहने वाली धाराएँ

और अपना चेतन अवशेष...!


नदी-

एक छोटी सी बच्ची भी है

युवती भी/ माँ भी

और, एक पूरा जीवन बोध भी...!