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{{KKRachna
|रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त
|संग्रह=साकेत / मैथिलीशरण गुप्त
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<poem>
::दोनों ओर प्रेम पलता हैहै।सखि , पतंग भी जलता है हा ! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता--बन्धु ’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’पर पतंग पडकर पड़ कर ही रहता ::कितनी विह्वलता है!::दोनों ओर प्रेम पलता है है।बचकर हाय ! पतंग मरे क्या?प्रणय छोडकर छोड़ कर प्राण धरे क्या?जले नही तो मरा करें करे क्या ?::क्या यह असफलता है!::दोनों ओर प्रेम पलता है है।कहता है पतंग मन मारे--तुम ’तुम महान , मैं लघु , पर प्यारे,क्या न मरण भी हाथ हमारे ?::शरण किसे छलता है?’::दोनों ओर प्रेम पलता है है।दीपक के जलनें में आली ,फिर भी है जीवन की लालीलाली।किन्तु पतंग -भाग्य -लिपि काली ,::किसका वश चलता है?::दोनों ओर प्रेम पलता है है।जगती वणिग्वृत्ति है रखती,उसे चाहती जिससे चखती;काम नही नहीं, परिणाम निरखती निरखती।::मुझको ही खलता हैहै।::दोनों ओर प्रेम पलता हैहै।
</poem>
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