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फिर भी / अरुण कमल

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'''फिर भी'''{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=अरुण कमल|संग्रह = सबूत / अरुण कमल}}{{KKCatKavita}}<poem>मैंने देखा साथियों को<br />
हत्यारों की जै मनाते
मेरा घर नीलाम हुआ<br />
और डाक बोलने आये अपने ही दोस्त
पहले जितना खुश तो नहीं हूँ मैं<br />न हथेलियों में गर्म जोशी<br />न ही आदमी में पहले सा भरोसा<br />उतनी उम्मीद भी नहीं है अब<br />
हरापन भी पक कर स्याह पड़ गया है
फिर भी मैं जानता हूँ कि अभी-अभी<br />मारकोस मनीला से भागा<br />जहाँ तोप के मुँह में मुँह लगाये लगाए खड़ा<br />पन्द्रह साल का एक लड़का<br /> :::::व्हिसिल बजाता<br />जानता तो हूँ कि बेबी डॉक<br />जल्दी-जल्दी जाँघिया पहनता<br />हवाई पट्टी पर दौड़ा<br /> :::::हाइती से बाहर<br />और जिन औरतों ने चौखट के पार कभी<br /> ::::पाँव नहीं डाला<br />उन्होंने घेर ली देश की संसद अचानक<br />इसलिए उम्मीद है कि मेरा घर<br /> ::::मुझे मिलेगा वापस<br />उम्मीद है कि जनरल डायर जिन्दा ज़िन्दा नहीं बचेगा<br />अभी भी जलियाँवाला बाग में<br />अपने पति की लाश अगोरती बैठी है वो औरत<br />
कि लोग सुबह तक आएँगे ज़रूर
नये दोस्त बनेंगे<br />नयी भित्ती उठेगी<br />जो आज अलग है<br />
कल एक होंगे
पत्थर की नाभि में अभी भी कहीं<br /> जिन्दा ::::ज़िन्दा है हरा रंग-<br />
मुझे उम्मीद है फिर भी......
</poem>
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