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14:28, 9 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= श्रद्धा जैन
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<poem>
अज़ीब शख़्स था, आँखों में ख़्वाब छोड़ गया
वो मेरी मेज़ पे, अपनी किताब छोड़ गया
नज़र मिली तो अचानक झुका के वो नज़रें
मेरे सवाल के कितने जवाब छोड़ गया
उसे पता था, कि तन्हा न रह सकूँगी मैं
वो गुफ़्तगू<ref>बातचीत </ref> के लिए, माहताब<ref>चाँद </ref> छोड़ गया
गुमान हो मुझे उसका, मिरे सरापे<ref>आकृति</ref> पर
ये क्या तिलिस्म है, कैसा सराब छोड़ गया
सहर<ref>सुबह</ref> के डूबते तारे की तरह बन 'श्रद्धा'
हरिक दरीचे<ref>खिड़की </ref> पे जो आफताब<ref>सूरज</ref> छोड़ गया
</poem>
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