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11:42, 12 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
}}
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<Poem>
फिर वही लहरें टूटती हैं
उसी सागर पर
फिर आया हूँ मैं
यह दिन कोई और दिन है
जिसमें कोई परिचित स्वर नहीं
फूलों के खिलने की बेला
बीत गई
अब यहां वसंत भी नहीं आयेगा
लहरें टूटती होंगी
अनजान
हवाओं के इशारे पर
फूल खिले-न-खिले
सागर कभीं उदास नहीं होता ।
</poem>