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Kavita Kosh से
मैं खड़ा था के कि पीठ पर मेरी
इश्तिहार इक लगा गया कोई
ऐसी मंहगाई है के कि चेहरा भी
बेच के अपना खा गया कोई
अब बोह वो अरमान हैं न वो सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई