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{{KKRachna
|रचनाकार=श्रीकांत वर्मा|संग्रह=भटका मेघ / श्रीकांत वर्मा }}{{KKCatKavita}}<poem>भटक गया हूँ---मैं असाढ़ का पहला बादलश्वेत फूल-सी अलका कीमैं पंखुरियों तक छू न सका हूँकिसी शाप से शप्त हुआदिग्भ्रमित हुआ हूँ।शताब्दियों के अंतराल में घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।कालिदास मैं भटक गया हूँ,मोती के कमलों पर बैठीअलका का पथ भूल गया हूँ।
भटक गया हूँ---<br>मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गये हैं।मुझमें बिजली बन आदेश तुम्हाराअब तक कड़क रहा है।आँसू धुला रामगिरी काले हाथी जैसा मुझे याद है।लेकिन मैं असाढ़ का पहला बादल<br>निरपेक्ष नहीं, निरपेक्ष नहीं हूँ।श्वेत फूल-सी मुझे मालवा के कछार सेसाथ उड़ाती हुई हवाएँकहाँ न जाने छोड़ गयी हैं !अगर कहीं अलका की<br>बादल बन सकतीमैं पंखुरियों तक छू न सका हूँ<br>अलका बन सकता !किसी शाप मुझे मालवा के कछार से शप्त हुआ<br>दिग्भ्रमित हुआ हूँ।<br>साथ उड़ाती हुई हवाएँशताब्दियों के अंतराल उज्जयिनी में घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।<br>पल भर जैसेकालिदास मैं भटक गया हूँठिठक गयी थीं, ठहर गयी थीं,<br>मोती के कमलों पर बैठी<br>क्षिप्रा की वह क्षीण धार छूअलका का पथ भूल गया हूँ।<br><br>सिहर गयी थीं।मैंने अपने स्वागत में तब कितने हाथ जुड़े पाये थे।मध्य मालवा, मध्य देश मेंकितने खेत पड़े पाये थे।
मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गये हैं।<br>कितने हलों, नागरों की तबमुझमें बिजली बन आदेश तुम्हारा<br>नोकें मेरे वक्ष गड़ी थीं।अब तक कड़क रहा है।<br>कितनी सरिताएँ धनु की ढीली डोरी-सी क्षीण पड़ी थीं।आँसू धुला रामगिरी काले हाथी जैसा मुझे याद है।<br>तालपत्र-सी धरती,लेकिन मैं निरपेक्ष नहींसूखी, दरकी, निरपेक्ष नहीं हूँ।<br>मुझे मालवा के कछार से<br>साथ उड़ाती कबसे फटी हुई हवाएँ<br>कहाँ न जाने छोड़ गयी हैं !<br>अगर कहीं अलका बादल बन सकती<br>मैं अलका बन सकता !<br>थी।माँयें मुझे मालवा के कछार से<br>साथ उड़ाती हुई हवाएँ<br>उज्जयिनी में पल भर जैसे<br>ठिठक गयी निहार रही थीं, ठहर गयी वधुएँ मुझे पुकार रही थीं,<br>क्षिप्रा की वह क्षीण धार छू<br>बीज मुझे ललकार रहे थे,सिहर गयी ऋतुएँ मुझे गुहार रही थीं।<br>मैंने अपने स्वागत में तब कितने हाथ जुड़े पाये थे।<br>मध्य मालवा, मध्य देश में<br>कितने खेत पड़े पाये थे।<br><br>
कितने हलों, नागरों मैंने शैशव की निर्दोष आँख में तब<br>पानी देखा था।नोकें मेरे वक्ष गड़ी थीं।<br>मुझे याद आया,कितनी सरिताएँ धनु की ढीली डोरी-सी क्षीण पड़ी थीं।<br>मैं ऐसी ही आँखों का कभी नमक था।तालपत्र-सी अब धरती,<br>से दूर हुआसूखी, दरकी, कबसे फटी हुई थी।<br>माँयें मुझे निहार रही थीं, वधुएँ मुझे पुकार रही थीं,<br>बीज मुझे ललकार रहे थे,<br>ऋतुएँ मुझे गुहार रही थीं।<br><br>मैं आसमान का धब्बा भर था।
मैंने शैशव की <br>मुझे क्षमा करना कवि मेरे!निर्दोष आँख में तब पानी देखा था।<br>से अब तक भटक रहा हूँ।मुझे याद आयाअब तक वैसे हाथ जुड़े हैं,<br>मैं ऐसी ही आँखों का कभी नमक था।<br>अब तक सूखे पेड़ खड़े हैं,अब तक उजड़ी हैं खपरैलें,अब तक प्यासे खेत पड़े हैं।मैली-मैली सी संध्या मेंझरते पलाश के पत्तों-सेधरती के सपने उजड़ रहे हैं।मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं।कितने आँसू टप, टप, टपमेरी छाती पर टपक रहे हैं।कितने उलाहने मन में मेरेबिजली बन लपक रहे हैं।अन्दर-ही-अन्दर मैंकब से दूर हुआ<br>फफक रहा हूँ।मेरे मन में आग लगी हैभभक रहा हूँ।मैं आसमान सदियों के अंतराल मेंवाष्प चक्र-सा घूम रहा हूँ।बार-बार सूखी धरती का धब्बा भर था।<br><br>रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।प्यास मिटा पाया कब इसकीघुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।
मुझे क्षमा करना कवि मेरे!<br>तब से अब तक भटक रहा हूँ।<br>अब तक वैसे हाथ जुड़े हैं,<br>अब तक सूखे पेड़ खड़े हैं,<br>अब तक उजड़ी हैं खपरैलें,<br>अब तक प्यासे खेत पड़े हैं।<br>मैली-मैली सी संध्या में<br>झरते पलाश के पत्तों-से<br>धरती के सपने उजड़ रहे हैं।<br>मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं।<br>कितने आँसू टप, टप, टप<br>मेरी छाती पर टपक रहे हैं।<br>कितने उलाहने मन में मेरे<br>बिजली बन लपक रहे हैं।<br>अन्दर-ही-अन्दर मैं<br>कब से फफक रहा हूँ।<br>मेरे मन में आग लगी है<br>भभक रहा हूँ।<br>मैं सदियों के अंतराल में<br>वाष्प चक्र-सा घूम रहा हूँ।<br>बार-बार सूखी धरती का<br>रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।<br>प्यास मिटा पाया कब इसकी<br>घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ।<br><br> जिस पृथ्वी से जन्मा<br>उसे भुला दूँ<br>यह कैसे सम्भव है ?<br>पानी की जड़ है पृथ्वी में<br>बादल तो केवल पल्लव है।<br>मुझमें अतर्द्वन्द्व अंतर्द्वन्द्व छिड़ा है।<br>मुझे क्षमा करना कवि मेरे!<br>तुमने जो दिखलाया मैंने<br>उससे कुछ ज्यादा ज़्यादा देखा है।<br>मैंने सदियों को मनुष्य की आँखों में घुलते देखा है।<br>मेरा मन भर आया है कवि,<br>अब न रुकूँगा।<br>अलका भूल चुकी मैं अब तो<br>इस धरती की प्यास हरूँगा।<br>सूखे पेड़ों, पौधों, अँकुओं की अब मौन पुकार सुनूँगा।<br>सुखी रहे तेरी अलका मैं<br>यहीं झरूँगा।<br>अगर मृत्यु भी मिली<br>मुझे तो<br>यहीं मरूँगा।<br>मुझे क्षमा करना कवि मेरे!<br>मैं अब अलका जा न सकूँगा।<br>मुझे समय ने याद किया है<br>मैं खुद ख़ुद को बहला न सकूँगा।<br>अब अँकुआये धान,<br>किसी कजरी में तुम मुझको पा लेना।<br>मैं नहीं हूँ कृतघ्न मुझे तुम शाप न देना!<br>मैं असाढ़ का पहला बादल<br>शताब्दियों के अंतराल में घूम रहा हूँ।<br>
बार-बार सूखी धरती का रूखा मस्तक चूम रहा हूँ।
</poem>
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