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07:57, 17 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
}}
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<Poem>
मैंने खो दिया है तुम्हें
यही तो अर्थ है रात का
झील के पानी पर
एक तारे की परछाई है
जंगल के वीरान दरख़्तों से
गुज़रती हवा की गूंज में
कोई नाम नहीं ।
तुम हो न जाने कितनी नदियों की दूरी पर
ऋतुओं, संवत्सरों, घाटियों के पीछे
ओझल कहीं
मैंने तुम्हें नहीं तलाशा
किसी निर्जन, किसी महल में
किसी पगडंडी से नहीं पूछा
तुम्हारा पता ।
मैंने तो चाहा है इस रात को
जिसमें निमग्न है
एक रहस्य...
जिसके पार टिमटिमाता है
एक तारा ...
</poem>