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क्षण की खिड़की / त्रिलोचन

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|संग्रह=चैती / त्रिलोचन
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मैं ने अगहन के दिन
 
देखी है मूरत वह
 
युवती की
 
जिस में वह जीवन था
 
जो जीवन का जीवन होता है
 
चढ़ती हुई धूप
 
मेरी नाड़ियों में
 
फैल गई
 
आँखों से हो कर
 
कुछ ऎसा
 
हृदय में पहुँचा
 
जिस से
 
कुछ कष्ट हुआ
 
कष्ट वह
 कुछ ऎसा ऐसा था 
जिस को जी
 
फिर चाहे
 
चाहा करे
 
मेरी अपनी पूरी सत्ता में
 
सत्ता इस ओर की
 
समा गई
 
जैसे
 
ताल के निर्मल जल में
 
कोई वस्तु पैठती चली जाए
 
जल सिकुड़ सिकुड़ आए
 
मैं केवल दर्शक था
 
दृष्टि का प्रकाश-जल
 
ऊर्मिल भी बँधा हुआ
 
शांत था
 
इस प्रकाश-जल को
 
मर्यादा की परिधि ने
 
संस्कारों के बल से
 
बाँध कर रखा था
 
लेकिन
 
इस जल को
 
लहरा देने वाला मन
 
बंधन से परे था
 
अर्ध वृत्त में कंधे
 
उन पर सुढार ग्रीवा,
 
चिबुक, अधर, नासिका, आँखें, भौंहें, मस्तक,
 
फिर केशराशि
 
बंधन में भी अबंध
 
लहराती पीठ पर,
 
कुहनियों से
 
खुले हुए हाथ
 
वे हथेलियाँ
 
कुईं की पंखड़ी पर
 
ऊषा ठहर गई थी
 
उँगलियाँ
 
लंबोतरी कोरदार
 
कभी दाएँ
 
कभी बाएँ
 
अगल बग़ल हिल हिल कर
 
मन के अलक्ष्य भाव
 
वायु की लहरियों पर
 
लिखती थीं
 
यौवन का यह चढ़ाव
 
देह में समा कर भी
 
सीमा को मान नहीं देता था
 
जीवन
 
चाहे क्षण की खिड़की पर आ जाए
 
पर
 
वह क्षण के घेरे में घिरा नहीं
 
जैसे
 
खिड़की के घेरे में आया आकाश
 
चेष्टाएँ,
 
गति
 
मुद्रा जो मुख पर
 
भावों से उछट उछट कर
 
उरेह उठती थी
 
मेरी आँखों में आ बसी है
 
अब जीवन के प्रवाह में कहीं
 
मैं पत्थर जैसा हूँ
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