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09:10, 27 फ़रवरी 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=घनानंद
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'''(राग खंभाती)'''
अरी, ’निसि नींद न आवै, होरी खेलन की चोप ।
स्याम सलौना, रूप रिझौना, उलह्यौ जोबन कोप ॥
अबहीं ख्याल रच्यौ जु परस्पर, मोहन गिरिधर भूप ।
अब बरजत मेरी सास-नँनदिया, परी विरह के कूप ॥
मुरली टेर सुनाइ, जगावै सोवत मदन अनूप ।
पै जिय सोच रही हौं अपने, जाय मिलौं हरि हूप ॥
इत डर लोग, उत चोंप मिलन की, निरख-निरखि वो रूप ।
’आनँदघन’ गुलाल घुमड़न में, मिलि हौं अँग-अँग गूप ॥
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