भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बचपन / नज़ीर अकबराबादी

3 bytes removed, 08:48, 25 जनवरी 2007
क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले ।
निकले थी दाईं दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।।
चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।
दिल में किसी के हरगिज़ ने(न) शर्म ने हया है ।
आगा भी खुल रहा है, पीछा भी खुल रहा है ।।
पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।
यां यूं याँ यूँ भी वाह वा है और वूं वूँ भी वाह वा है ।।
कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।
Anonymous user