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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल'
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[[Category:कविता]]
<poem>
मेरे प्राणेश न याद मुझे कब से तुमसे बिछड़ा हूँ मैं।
भूल ही गया उसको जिसके बल से चल रहा खड़ा हूँ मैं।।

तृण कभीं, कभीं गिरि सरि-विहंग
या पशु-पतंग, पादप लकड़ी।
जाने कितनी योनियाँ गहीं
कितनी-कितनी राहें पकड़ी।
मरता-जन्मता रहा अनगिन
नरकों के बीच सड़ा हूँ मैं-
भूल ही गया 0................................।।1।।

किसकी न खट खटाई खिड़की
किसकी-किसकी झिड़की न सही।
बस एक मात्र तुमको ही मैंने
कभीं पुकारा नाथ नहीं।
शत-शत छिद्रों से भरा बिना
पेंदी का नाथ घड़ा हूँ मैं-
भूल ही गया 0................................।।2।।

भोग ही हमें भोगते गये
विषयों ने बड़ा निचोड़ दिया।
तुमने न हमें छोड़ा प्रियतम
हमने ही तुमको छोड़ दिया।
उजड़ता रहा, उबरता कठिन
पापों में बड़ा गड़ा हूँ मैं-
भूल ही गया 0................................।।3।।

करूणा तुमको करनी ही है,
क्यों देर कर रहे नट-नागर।
तुम बिना के रह भी तो
सकते हो नहीं कुपा-सागर।
इस ‘पंकिल’ आशा में ही तेरे
आगे गिरा पड़ा हूँ मैं-
भूल ही गया 0................................।।4।।
</poem>
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