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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल'
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[[Category:कविता]]
<poem>
मैं खड़ा दयामयि हाथ जोड़ कुछ अपनी बातें कहने को।
मत कह देना अवकाश नहीं बकवास तुम्हारी सुनने को।।

ओ मेरी जन्मदायिनी माँ बतला क्यों मुझको जनमाया
जनमाया भी तो क्यों दे दी मुझको सुर-दुर्लभ नर-काया
क्यों मेरे लिये हुई तत्पर सुर-दुर्लभ नर-तन चुनने को-
मत कह देना0..............................।।1।।

कुछ भी तो हमें बना सकती थी गिरि, सागर, सरिता, निर्झर।
कर देती पशु कीट पतंगा, जीव-जन्तु जल, थल, नभ-चर।
अपना उपहास न मान रही क्या मेरे नर पशु बनने को-
मत कह देना0..............................।।2।।

जनमाया तो तेरा यह भी दायित्व हो गया बरदानी।
माँ ममतामयी मिटा दो मेरी सारी पाप-परेशानी।
क्या इसी लिये भेंजा उलझन का ताना-बना बुनने को-
मत कह देना0..............................।।3।।

भव-सागर में खाता गोता तट प्राप्त न सभी प्रयास विफल।
माँ जान हमारी मार रहे दुर्गम विषयों के दैत्य-प्रबध।
मत निर्मोही बन तज भोगों की भट्टी में जल-भुनने को-
मत कह देना0..............................।।4।।

तुम खोज-खोज थक जाओगी मुझसा न मिलेगा अध-कामी।
माँ ब्रह्मचारिणी का सुत हो कुविचारी, किसकी बदनामी।
मैं मचल रहा आनन्दमयी तेरी गोदी में पलने को-
मत कह देना0..............................।।5।।

तुम भले कहो उदगार हमारे हैं सब पगले के प्रलाप।
पर किसी भाँति चाहता दयामयि माता से वार्तालाप।
विश्वास न हमको बिसरा दोगी छोड़ोगी सिर धुनने को-
मत कह देना0..............................।।6।।

तुम निश्चय ही सुनती होगी जगदम्ब हमारी करूण-कथा
अपने कर की छाया देकर माँ हर लो मेरी भीर-व्यथा
पद-रज की भिक्षा दो ‘पंकिल’ की बिगरी सुभी सुधरने की-
मत कह देना0..............................।।7।।
</poem>
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