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|संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी
}}
{{KKCatKavita‎}}<poem>कभी हो नहीं पाया ऎसाऐसा
परिवार के सारे सदस्य बैठे हों एक साथ
 
कोई एक हमेशा छूट जाता था ढाबे पर
 
उसके न होने को हम उसका होना करते
 
हँसी हँसते उसकी
 
फिर भी
 
वह अपने न होने का अहसास कराता बार-बार।
 
सारा जीवन खटते रहे पिता ढाबे में
 
करते रहे हमारी इच्छाएँ पूरी
 
ख़ुद की इच्छाओं से रहे बेख़बर।
 
ओ मेरे पिता
 
क्या तुम कभी नहीं टहल पाओगे
 
माँ के साथ सड़कों पर
 
कभी नहीं पढ़ पाओगे क्या
 
आरामकुर्सी पर बैठ कर अख़बार।
</poem>
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