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|संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी
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ढाबा
 
सिखाया जिसने हमें रखना धीरज
 
बीत गया जिसमें बचपन
 
आँच में जिसकी तपता रहा प्रेम।
 
स्कूल में भी रह-रह कर याद आता था
 
ढाबे पर अकेले होंगे पिता
 
रोटी बनाते भी होंगे और परोसते भी।
 
इस सबसे बेख़बर लड़कियाँ
 
ग़प्पें लड़ाती डूबी रहतीं एक दूसरे में
 
क्लास ख़ाली होती
 
मेरा मन दौड़ता ढाबे की ओर
 
पिता के साथ काम बँटाने को जी चाहता
 
स्कूल में पढ़ाई हो न हो
 
छुट्टी से पहले नहीं पहुँचा जा सकता था पिता के पास।
 
वे दिन भुलाए नहीं भूलते
 
निकलती थीं जब साथ पढ़ती लड़कियाँ
 
डर से सिहर जाते थे हम
 
कहीं कोई ज़िक्र न कर बैठे स्कूल में ढाबे पर बैठने का।
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