भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
वर्तनी के सम्पादन/ ३-४ कविताएँ एक ही पन्ने पर थीं
<poem>
कभी पूरी नींद तक भी
न सोने वाली औरतोंऔरतो !
मेरे पास आओ,
दर्पण है मेरे पास
जो दिखाता है
कि अक्सर फिर भी
औरतों की आंखेंआँखें
खूबसूरत होती क्यों हैं,
चीखों-चिल्लाहटों भरे
बंद मुंह मुँह भीकैसे मुसका मुस्कुरा लेते हैं इतना,
और , आप!
जरा गौर से देखिए
सुराहीदार गर्दन के
लाल से नीले
और नीले से हरे
चुन्नियों में लिपटे
बुर्कों से ढंकेढँकेआंचलों आँचलों में सिमटेनंगई संवारते सँवारते हैं।
टूटे पुलों के छोरों पर
तूफान पार करने की
उम्मीद लगाई औरतों!
जमीन धसक रही है
पहाड़ दरक गए हैं
बह गई हैं -चौकियाँ
शाखें लगातार काँपती गिर रही हैं
जंगल
अभी भी बचा है
एक दर्पण
चमकीला। क्रमकितने दिन हो चुकेहवाएंदौड़ रहींकितनी रातेंगईंभोर-पर-भोर गईंमिलताकुछ भी नहींहथेली खाली हैहोताकुछ भी नहींकाँपतीडाली है। दिनलोगों की जिंदगी मेंसो गया है दिन, अब वेनए दिन की पुरानी पड़ती थकानों से झुँझलाएहंस कर नहीं मिलते उससे। उम्मीद सेसाल-भर बाट जोहते हैंनए साल की,उनींदी रात को जगासिंगार करते हैं उसकाफिर छोड़ देते हैं साल के पहले उजाले के ऑंगन मेंले जा, उजालाअपने उजाले में फीकी पड़ीउसकी चमक पर रीझे भी तोकैसे?