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|रचनाकार=रघुवीर सहाय |संग्रह =कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ / रघुवीर सहाय
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भाषा की ऊष्मा से फूटते नहीं है शब्द
भीगी पोटली म्रं में अब । कविता बनाकर मैं मोड़ कर रख देता रहा हूंहूँदो दिन में खोल कर पढ़ लेता रहा हूंहूँआड़े -तिरछे अंखुए अँखुए चिटख़ी दरारों में झांकते झाँकते मिले हैं ।
आज यह नहीं हुआ
सावधान !
क्या खड़ी बोली में अनजाना शब्द अब
नहीं रहा
जिसको परम्परा देती थी ?