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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
कीजै ज्ञान भानु कौ प्रकास गिरि-सृंगनि पै
::ब्रज मैं तिहारी कला नैंकु खटिहैं नहीं ।
कहै रतनाकर न प्रेम-तरु पैहै स्सोखि
::यकी डार-पात तृन-तूल घटिहैं नहीं ॥
रसना हमारी चारु चातकी बनी हैं ऊधौ
::पी-पी कौ बिहाई और रट रटिहैं नहीं ।
लौटि-पौटि बात कौ बवंडर बनाबत क्यों
::हिय तैं हमारे घनश्याम हटिहैं नहीं ॥58॥
</poem>
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