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सफलता का संकलित विलंब।"
 
 
घन-तिमिर में चपला की रेख
 
तपन में शीतल मंद बयार।
 
नखत की आशा-किरण समान
 
हृदय के कोमल कवि की कांत-
 
 
कल्पना की लघु लहरी दिव्य
 
कर रही मानस-हलचल शांत
 
लगा कहने आगंतुक व्यक्ति
 
मिटाता उत्कंठा सविशेष,
 
 
दे रहा हो कोकिल सानंद
 
सुमन को ज्यों मधुमय संदेश
 
"भरा था मन में नव उत्साह
 
सीख लूँ ललित कला का ज्ञान,
 
 
 
इधर रही गन्धर्वों के देश,
 
पिता की हूँ प्यारी संतान।
 
घूमने का मेरा अभ्यास बढा था
 
मुक्त-व्योम-तल नित्य,
 
 
कुतूहल खोज़ रहा था,
 
व्यस्त हृदय-सत्ता का सुंदर सत्य।
 
दृष्टि जब जाती हिमगिरी ओर
 
प्रश्न करता मन अधिक अधीर,
 
 
धरा की यह सिकुडन भयभीत आह,
 
कैसी है? क्या है? पीर?
 
मधुरिमा में अपनी ही मौन
 
एक सोया संदेश महान,
 
 
सज़ग हो करता था संकेत,
 
चेतना मचल उठी अनजान।
 
बढा मन और चले ये पैर,
 
शैल-मालाओं का श्रृंगार,
 
 
आँख की भूख मिटी यह देख
 
आह कितना सुंदर संभार
 
एक दिन सहसा सिंधु अपार
 
लगा टकराने नद तल क्षुब्ध,
 
 
अकेला यह जीवन निरूपाय
 
आज़ तक घूम रहा विश्रब्ध।
 
यहाँ देखा कुछबलि का अन्न,
 
भूत-हित-रत किसका यह दान
 
 
इधर कोई है अभी सजीव,
 
हुआ ऐसा मन में अनुमान।
 
 
'''''''''''''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar''''''''''''''''''Bold text'''''Italic text''
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