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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
एते दूरि देसनि सौं सखनि-सन्देसनि सौं
::लखन चहैं जो दसा दुसह हमारी है ।
कहै रतनाकर पै विषम बियोग-बिथा
::सबद-बिहीन भावना की भाववारी है ॥
आनैं उर अन्तर प्रतीति यह तातैं हम
::रीति नीति निपट भुजंगनि की न्यारी है ।
आँखिनि तैं एक तो सुभाव सुनिबै कौ लियौ
काननि तैं एक देखिबै की टेक धारी है ॥71॥
</poem>
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