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लेखक: धर्मवीर भारती
[[Category:धर्मवीर भारती]]

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...क्योंकि सपना है अभी भी<br>
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल<br>
कोहरे डूबी दिशाएं<br>
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल<br>
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी<br>
...क्योंकि सपना है अभी भी!<br><br>

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा<br>
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा<br>
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा<br>
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था<br>
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)<br>
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना<br>
है धधकती आग में तपना अभी भी<br>
....क्योंकि सपना है अभी भी!<br><br>

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर<br>
वह तुम्ही हो जो<br>
टूटती तलवार की झंकार में<br>
या भीड़ की जयकार में<br>
या मौत के सुनसान हाहाकार में<br>
फिर गूंज जाती हो<br><br>

और मुझको<br>
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको<br>
फिर तड़प कर याद आता है कि<br>
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच<br>
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं<br>
तुम्हारा अपना अभी भी<br><br>

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल<br>
कोहरे डूबी दिशाएं<br>
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल<br>
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी<br>
... क्योंकि सपना है अभी भी!<br><br>
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