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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
ह्याँ तो ब्रजजीवन सौ जीवन हमारौ हाय
जानैं कौन जीव लैं उहाँ के जन-जन में ।
कहैं रतनाकर बतावत कछू कौ कछू
ल्यावत न नैंकु हूँ बिवेक निज मन में ॥
अच्छिनि उधारि ऊधौ करहु प्रतच्छ लच्छ
इत पसु-पच्छिनि हूँ लाग है लगन में ।
वाहू की न जीह करै ब्रह्म की समीहा सुनी
पीहा-पीहा रटत पपीहा मधुवन में ॥81॥
</poem>
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