<poem>
आवति दीवारी बिलखाइ ब्रज-वारी कहैं
::अबकै हमारै गाँव गोधन पुजैहै को ।
कहै रतनाकर विविध पकवान चाहि
::चाह सौं सराहि चख चंचल चलैहै को ॥
निपट निहोरे जोरि हाथ निज साथ ऊधौ
::दमकति दिव्य दीपमालिका दिखैहै को ।
कूबरी के कूबर तैं उबारि न पावैं कान्ह
::इंद्र-कोप-लोपक गुबर्धन उठैहै को ॥86॥
</poem>