जो भुलवाती है देह-देह
मैं यहाँ अकेली देख रही पथ,
सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत,
कानन में जब तुम दौड रहे
मृग के पीछे बन कर अशांत
ढल गया दिवस पीला पीला
तुम रक्तारूण वन रहे घूम,
देखों नीडों में विहग-युगल
अपने शिशुओं को रहे चूम
उनके घर मेम कोलाहल है
मेरा सूना है गुफा-द्वार
तुमको क्या ऐसी कमी रही
जिसके हित जाते अन्य-द्वार?'
" श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं
पर मैं तो देक रहा अभाव,
भूली-सी कोई मधुर वस्तु
जैसे कर देती विकल घाव।
चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने
अवरूद्ध श्वास लेगा निरीह
गतिहीन पंगु-सा पडा-पडा
ढह कर जैसे बन रहा डीह।
जब जड-बंधन-सा एक मोह
कसता प्राणों का मृदु शरीर,
अकुलता और जकडने की
तब ग्रंथि तोडती हो अधीर।
हँस कर बोले, बोलते हुए निकले
मधु-निर्झर-ललित-गान,
गानों में उल्लास भरा
झूमें जिसमें बन मधुर प्रान।
वह आकुलता अब कहाँ रही
जिसमें सब कुछ ही जाय भूल,
आशा के कोमल तंतु-सदृश
तुम तकली में हो रही झूल।
यह क्यों, क्या मिलते नहीं
तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म?
तुम बीज बीनती क्यों?
मेरा मृगया का शिथिल हुआ न कर्म।
तिस पर यह पीलापन केसा-
यह क्यों बुनने का श्रम सखेद?
यह किसके लिए, बताओ तो क्या
इसमें है छिप रहा भेद?"
" अपनी रक्षा करने में जो
चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र
वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं-
हिंसक से रक्षा करे शस्त्र।
पर जो निरीह जीकर भी
कुछ उपकारी होने में समर्थ,
वे क्यों न जियें, उपयोगी बन-
इसका मैं समझ सकी न अर्थ
''''''''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar''''''''''