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|रचनाकार=जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
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<poem>
कोऊ जोरि हाथ कोइ नम्रता सौं नाइ माथ
::भाषना की लाख लालस सौं नहिं जात है ।
कहै रतनाकर चलत उठि ऊधव के
::कातर ह्वै प्रेम सौं सकल महि जात है ॥
सबद न पावत सौ भाव उमगावत जों
::ताकि-ताकि आनन ठगे से ठहि जात हैं ।
रंचक हमारी सुनौ रंचक हमारी सुनौ
::रंचक हमारी सुनौ कहि रहि जात है ॥98॥
</poem>
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