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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रवीन्द्र दास}}{{KKCatKavita}}<poem>बार-बार , कई बार परीक्षा करके देख लिया 
बुजुर्गों के बताए जुगत भिडाये
 
क्या क्या जतन न किए
 
फिर भी फिसल ही तो गई जिन्दगी
 
बंद मुट्ठी की रेत मानिंद
 
और हम देखते रहे - अवाक्, अवसन्न ।
 
खिड़की , दरवाजे खुली ही रखते थे
 
कि आएगी रौशनी, हवा, धूप वगैरह
 
कभी कभार पंछी-पखेरू भी आकर करते थे चुनमुन-चुनमुन
 
खिड़की, दरवाजे खुले रखो
 
मन के भी ........
 
तोते का पिंजरा, पिंजरे का तोता
 
और आस-पास आज़ादी की कहानियां
 
तोता बाहर-भीतर करता है
 
उसे अन्दर का मलाल है
 उसे बाहर का ख़याल है , 
उसे एक रस जिन्दगी से बोरियत होने जो लगी थी
 
पिंजरा तो पिंजरा है
 
बहुत मिलते है ........ सो उड़ गया तोता
 
हमने सोचा कि कहाँ जाएगा
 
आ ही जाएगा शाम तक
 
कहा न पहले ही
 
सचमुच जिन्दगी बड़ी अजीब होती है
 
तोते की भी
 
हमने सोचा कि तोता सोचता नहीं
 
सोचते तो सिर्फ हम हैं
 
पर तोता नहीं आया आजतक
 
गुजर गया अरसा
 
हम बैठे बैठे बस इतना सोच पा रहे हैं-
 
जिन्दगी भी अजीब है
 
चाहे हमारी या फिर तोते की !
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