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09:20, 24 अप्रैल 2010 उधर
जमीन फट रही है
और वह उग रहा है
चमक रही हैं नदी की ऑंखें
हिल रहे हैं पेड़ों के सिर
और पहाड़ों के
कन्धों पर हाथ रखता
आहिस्ता-आहिस्ता
वह उग रहा है
वह खिलेगा
जल भरी ऑंखों के सरोवर में
रोशनी की फूल बनकर
वह चमकेगा
धरती के माथ पर
अखण्ड सुहाग की
टिकुली बनकर
वह
पेड़ और चिडि़यों के दुर्गम अंधेरे में
सुबह की पहली खुशबू
और हमारे खून की ऊष्मा बनकर
उग रहा है
उधर
आहिस्ता-आहिस्ता.