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<br />उधर<br />जमीन फट रही है<br />और वह उग रहा है<br /><br />चमक रही हैं नदी की ऑंखें<br />हिल रहे हैं पेड़ों के सिर<br />और पहाड़ों के<br />कन्धों पर हाथ रखता<br />आहिस्ता-आहिस्ता<br />वह उग रहा है<br /><br />वह खिलेगा<br />जल भरी ऑंखों के सरोवर में<br />रोशनी की फूल बनकर<br /><br />वह चमकेगा<br />धरती के माथ पर<br />अखण्ड सुहाग की<br />टिकुली बनकर<br /><br />वह <br />पेड़ और चिडि़यों के दुर्गम अंधेरे में<br />सुबह की पहली खुशबू<br />और हमारे खून की ऊष्मा बनकर<br />उग रहा है<br />उधर <br />आहिस्ता-आहिस्ता.<br /><br />