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देख रहा हूँ आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से , सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से ! से।
ज्ञान नहीं है, तर्क नहीं है, कला न भाव विवेचन,
जन हैं , जग है, क्षुधा, काम, इच्छाएँ जीवन साधन ! साधन।रूप जगत् जगत है, रूप दृष्टि है, रूप बोधमय है मन, माता पिता बंधु, बंधु बांधव, परिजन , पुरजन , भू गो धन। रूढ़ि रीतियों के प्रचलित पथ, जाति पाँचि पाँति के बंधन, नियत कर्म हैं, नियत कर्म फल,--जीवन चक्र सनातन ! सनातन। जन्म मरण के , सुख दुख के ताने बानों का जीवन, निठुर नियति के धूपछाँह जग का रहस्य है गोपन !
देख रहा हूँ निखिल विश्व को मैं ग्रामीण नयन से,
सोच रहा हूँ जग पर, मानव जीवन पर जन मन से ! से।
रूढ़ि नहीं है, रीति नहीं है, जाति वर्ण केवल भ्रम,
जन जन में है जीव, जीव-जीवन में सब जन हैं सम ! सम।
ज्ञान वृथा है, तर्क वृथा, संस्कृतियाँ व्यर्थ पुरातन,
प्रथम जीव है मानव में, पीछे है सामाजिक जन ! जन।
मनुष्यत्व के मान वृथा, विज्ञान वृथा रे दर्शन,
वृथा धर्म, गणतंत्रगण तंत्र,--उन्हें यदि प्रिय न जाव जीव जन जीवन !
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