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चलो / अशोक तिवारी

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<h1><b>चलो </b> </h1>{{KKGlobal}}<br><pre>{{KKRachna|रचनाकार=अशोक तिवारी</pre>|संग्रह= }}{{KKCatKavita}}<poemPoem> चलो ......
चलो कि चलना ही जीवन है
चलो कि चलना ही हासिल है
ज़िन्दगी मैं जुड़ते जा रहे पलों का
चलो कि चलना है मंजिल मंज़िल पर पहुँचने क़ीकी
एक हसीन हसरत
चलो कि चलना इस बात का है
चलो कि चलना लक्षण है उस संस्कृति का
ठहर नहीं सकती जो ---उस तहजीब तहज़ीब का
जो दी जाती है एक बच्चे को
बगैर बग़ैर किसी ऊचऊँच-नीच के
चलना है बहती हुई हवा को
अपने होने का अहसास कराना
चलो कि चलना खोलना है
बंद होते जा रहे खिड़की के सभी झरोखे
चलना है उन्हीं झरोखों से झांकती झाँकती रौशनी को अपने अंदर भरना
चलो कि चलना
चलो कि चलना इस बात की है निशानी
कि हारे नहीं हो तुम
उठ सकते हो बार- बार गिरकर भी
चलो कि चलना जूझना है
और मोड़ना है अपनी दिशा में
अपनी बाजुओं की ताक़त के बल पर
..............................................
</poem>
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