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अंधकार की गुहा सरीखी
:उन आँखों से डरता है मन,भरा दूर तक उनमें दारुनदारुण:दैन्य दुख का निरव नीरव रोदन!अह, अथाह नैराश्य, विवशता का:उनमें भीषण सूनापन,मानव के पाशव पीड़न का:देतीं वे निर्मम विज्ञापन! फूट रहा उनसे गहरा आतंक,:क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम,डूब कालिमा में उनकी:कँपता मन, उनमें मरघट का तम!ग्रस लेती दर्शक को वह:दुर्ज्ञेय, दया की भूखी चितवन,झूल रहा उस छाया-पट में:युग युग का जर्जर जन जीवन!
वह स्वाधीन किसान रहा,
:अभिमान भरा आँखों में इसका,
छोड़ उसे मँझधार आज
:संसार बहा कगार सदृश बहा बह खिसका!
लहराते वे खेत दृगों में
:हुया बेदखल बेदख़ल वह अब जिनसे,
हँसती थी उनके जीवन की
:हरियाली जिनके तृन-तृन से!
आँखों में ही घुमा में घूमा करता:वह उसकी आँखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
:गया जावानी में ही में मारा!
बिका दिया घर द्वार,
:महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,रह-रह आँखों में चुभती वह:कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!
उजरी उसके सिवा किसे कब
:पास दुहाने आने देती?अह, आँखों में नचा नाचा करती:उजड़ गई जो सुख की खेती!
बिना दावा दर्पन के घरनी
:स्वरग चली, --आँखें आती आतीं भर,देख-रेख के बिना दुधमुँही:बिटिया दो दिन बाद गई मर!
घर में विधवा रही पतोहू,
:लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,पकड़ मँगया मँगाया कोतवाल नें,:डूब कुऍं में मरी एक दिन! खैरख़ैर, पैर की जूती, जोरू:न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
:साँप लोटते, फटती छाती।छाती!
पिछले सुख की स्मृति आँखों में
:क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
:तीखी नोख सदृश बन जाती।मानव की चेतना न ममता:रहती तब आँखों में उस क्षण!हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,:दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण! उस अवचेतन क्षण में मानो:वे सुदूर करतीं अवलोकनज्योति तमस के परदों पर:युग जीवन के पट का परिवर्तन!अंधकार की अतल गुहा सी:अह, उन आँखों से डरता मन,वर्ग सभ्यता के मंदिर के:निचले तल की वे वातायन! रचनाकाल: जनवरी’ ४०
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