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Kavita Kosh से
हम दोनों
धरती के अलग-अलग छोरों पर
अलग-अलग अंधेरे अँधेरे में
देखते हैं पीले पत्तों का झड़ना
सुनो! तुम्हारे पतझड़ के पत्ते
उड़कर आ गये गए हैं मेरे पतझड़ में
क्या मेरे पतझड़ के पत्ते भी
तुम्हारे पतझड़ में
कि ये तुम्हारे पतझड़ के पत्ते नहीं हैं?
सुनो! सिर्फ सिर्फ़ हम ही नहीं हैं
कितने हैं हमारी तरह
अपने-अपने वसन्त से निर्वासित
सिर्फ पीले पत्तों का झड़ना
अलग कहां कहाँ हैं हमारे पतझड़अलग कहां कहाँ हैं हमारे अंधेरेअँधेरेअलग कहां कहाँ है हम सबके पतझड़ों में
झड़ते पीले पत्तों की मार्मिक पुकार
वसन्त! ओ वसन्त!
सुनो! मार्च के अंधेरे अँधेरे में
कितनी धीमी लेकिन कितनी
तरल है यह आवाजआवाज़
क्या तुम्हारा मन नहीं चाहता
कि जल्दी-जल्दी चप्पल में पांव पाँव डालकरकमीज कमीज़ के बटन लगाते निकल जाओइस आवाज आवाज़ के पीछे?</poem>