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{{KKRachna
|रचनाकार=नन्दल हितैषी
|संग्रह=बेहतर आदमी के लिए / नन्दल हितैषी
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<poemPoem>
पुलिस की बैरिक
कमरा नम्बर सात.सात।
कतार में चार सीलिंग फ़ैन
चलते हैं फ़र्राटे से
कन्ट्रोल नहीं है ’रेगुलेटर’ का कोई
ऐसे ही घिसते हैं, व्यवस्था के पुरजे.पुरजे।
रोशनदान में एक जोड़ी कबूतर
उनकी गुमसुम आँखें ......
चुपचाप या तो गुटरगूँ ऽ ऽ ऽ
या ओढ़े सन्नाटा पर सन्नाटा
मुँह ओरमाये न होने का दायरा ......
कुछ फर्क नहीं पड़ता
बैरिक में सन्नाटा हो
बीतरागी कबूतर / रोशनदान के किनारे
खूजलाता है पंख
या फैलाकर लेता है अंगड़ाई.अंगड़ाई।
और आते ही कबूतरी छाप लेती है
अपने हिस्से को.को।
लुढ़कता है एक बच्चा,
और फर्श पर औंधे मुँह
ऐसे उड़ी कबूतरी कि
डैनों से डैनों की टकराहट
और तोड़ दिया दम.दम।
आँख से आँख मिलाये
.... और कई दिन बाद
वही कबूतर
किसी और से चोंच मिलाये था.था।
</poem>
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