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Kavita Kosh से
चूर्ण हो गया विगत सांस्कृतिक हृदय जगत का जर्जर!
गत संस्कृतियों का आदर्शों का था नियत पराभावपराभव,
वर्ग व्यक्ति की आत्मा पर थे सौध धाम, जिनके स्थित;
तोड़ युगों के स्वर्ण पाश अब मुक्त हो रहा मानव,
जन मानवता की भव संस्कॄति संस्कृति आज हो रही निर्मित!
किए प्रयोग नीति सत्यों के तुमने जन जीवन पर,