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स्वर्ण चूर्ण सी उड़ती गोरज
:किरणों की बादल सी जल कर,
सनन्‍ सनन् तीर सा जाता नभ में
:ज्योतित पंखों कंठो का स्वर।
लौटे खग, गाएँ घर लौटीलौटीं,
:लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर,
छिपे गृहों में म्लान चराचर,
:बैठे सब क़स्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
:हिम की ऊँध ऊँघ रही लंबी अँधियारी।
धुँआ अधिक देती है
:टिन की ढिबरी, कम करती उजियाला,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
:आँखों के आगे बुनती जाला।
:मिट्टी खपरे के घर आँगन,
भूल गए लाला अपनी सुधि,
:भूल गया सब व्याजब्याज, मूलधन!
सकुची सी परचून किराने की ढेरी
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