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खिड़की से / सुमित्रानंदन पंत
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10:27, 4 मई 2010
क्षुद्र आत्म-पर भूल, भूत सब हुए समन्वित,
तण
तृण
, तरु से तारालि--सत्य है एक अखंडित!
मानव ही क्यों इस असीम समता से वंचित?
ज्योति भीत, युग युग से तमस विमूढ़, विभाजित!!
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