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{{KKRachna
|रचनाकार=कमलेश भट्ट 'कमल'
}}[[Category:गज़ल]]{{KKCatGhazal‎}}‎<poem>
किसे मालूम, चेहरे कितने आख़िरकार रखता है
 
सियासतदाँ है वो, खुद़ में कई किरदार रखता है।
 
 
किसी भी साँचे में ढल जाएगा अपने ही मतलब से
नहीं उसका कोई आकार, हर आकार रखता है।
 
 
निहत्था देखने में है, बहुत उस्ताद है लेकिन
 
जेहऩ में वो हमेशा ढेर सारे वार रखता है।
 
 
ज़मीं तक है नहीं पैरों के नीचे और दावा है
 
वो अपनी मुट्ठियों में बाँधकर संसार रखता है ।
 
 
बचाने के लिए ख़ुद को, डुबो सकता है दुनिया को
 
वो अपने साथ ही हरदम कई मँझधार रखता है।
</poem>
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