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Kavita Kosh से
<Poem>
हम जब घर लौटते हैं
बच्चे सोये सोए मिलते हैं
और हमारे उठने से पहले
निकल जाते हैं.हैं।
जब कभी उन्हें हम प्यार करते हैं
देखते हैं कि उन्हें
हमारी आदत नहीं हैं.हैं।
एक दिन हमसे भी प्यारे
उनके दोस्त होते हैं
परीक्षा के दिनों में
किसी दूसरे घर पढ़ते और सोते बच्चे
अपने लगाव का दायरा बड़ा करते हुए
स्वतंत्र से लगते हैं उनकी भावनाएंभावनाएँ
असमय वयस्क हुई सी छिपती हैं
उनका वह जीवन शुरू होता है
जिससे हम कभी वाकिफ वाकिफ़ नहीं होंगे
वे अक्सर हमारे डर के भीतर से
अपनी जिंदगी ज़िंदगी शुरू करते हैं
जो हम तय करते हैं
वे उसके खिलाफ खिलाफ़ होते हैं
बहुधा उन्हें ऐसे देखते हैं हम
कि बहुत दूर से देखते हों.हों।
उनके दुःखों की आशंका से सिहरता हुए
बहुत बाद में जब हम
कुछ कहते हैं