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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
हँसता ही जग में देखा,
इन म्लान, मलिन अधरों पर
स्थिर रही न स्मिति की रेखा !  वन :बन की सूनी डाली पर :सीखा कलि ने मुसकाना, :मैं सीख न पाया अब तक :सुख से दुख को अपनाना ! अपनाना।  
काँटों से कुटिल भरी हो
यह जटिल जगत की डाली,
इसमें ही तो जीवन के
पल्लव की फूटी लाली ! लाली।:अपनी डाली के काँटे :बेधते नहीं अपना तन ,:सोने-सा उज्जवल उज्ज्वल बनने :तपता नित प्राणों का धन ! धन।  दुख-दावा से नव -अंकुर पाता जग-जीवन का वनबन,
करुणार्द्र विश्व की गर्जन,
बरसाती नव -जीवन-कण !
(फरवरी,1932)रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२
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