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{{KKRachna
|रचनाकार=मंगलेश डबराल
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पहले भी शायद मैं थोड़ा थोड़ा मरता था
बचपन से ही धीरे धीरे जीता और मरता था
किसी मित्र परिचित को या खुद अपने को
अपने चहरे में लौटते देखते हो किसी चहरे को.
</poem>
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