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सो गई है मनुजता की संवेदना / जगदीश व्योम
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03:15, 14 मई 2010
कोई भी तो नहीं दूध का है धुला
है प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण
कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में
कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण
सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये
इनमें ढल जाइए या चले आइए।
</poem>
डा० जगदीश व्योम
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