भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal‎}}‎
<Poem>
गांव गाँव बचपन का मुझको बुलाता सदा मुस्कराता हुआ
रंग-बिरंगी शहरी तनहाइयों बीच आता हुआ
तंग गलियांगलियाँ, खुले रास्ते, खेत खलिहान, अमराइयांअमराइयाँमैं गुजरता गुज़रता था हमजोलियों संग हंसताहँसता-हंसाता हँसाता हुआ
जब कभी भी अकेला हुआ तो लगा, मैं अकेला नहीं
अपनी फसल से था बात करता उन्ही में नहाता हुआ
पेट खाली थे लेकिन दिलों में उमंगों की थी आंधियांआँधियाँ
हर महीना था साथी-सा चलता हमें थपथपाता हुआ
रूठ जाते थे हम खेल ही खेल में साधकर चुप्पियांचुप्पियाँप्यार फिर-फिर बुलाता था हमको खुशी ख़ुशी से रुलाता हुआ
भूख थी प्यास थी जाने कितनी मगर कोई दहशत न थी
वक्त वक़्त चलता था सबको समेटे हुए, गीत गाता हुआ
मां माँ की आंखों आँखों में ख्वाब ख़्वाब कितने उमड़ते हमारे लिए
कंठ में था पिता के, कोई दर्द-सा थरथराता हुआ
कितनी खुशबू ख़ुशबू थी मिट्टी की, गाती बगीचे के बाजार बाज़ार मेंउसमें हंसता हँसता था घर अपने आंगन आँगन का उत्सव मनाता हुआ
पूछता था कुशल -क्षेम घर का ठहरकर समय राह मेंदीखता था अगर कोई भटका मुसाफिरमुसाफ़िर-सा जाता हुआ
रंग फैले थे कितने फिजाओं फ़िजाओं के, घर से मदरसे तलकघाम में छांह छाँह थी, छांह छाँह में घाम था गुनगुनाता हुआ
मानता हूं हूँ कि अब वो नहीं है, न जाने कहां कहाँ खो गयाफिर भी लगता मेरी चेतना में सदा महमहाता हुआ</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits