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सो गई है मनुजता की संवेदना
गीत के रूप में भैरवी गाइए
गा न पाओ अगर जागरण के लिए
कारवां छोड़कर अपने घर जाइए
 
झूठ की चाशनी में पगी ज़िंदगी
सत्य ऐसा कहो, जो न हो निर्वसन
उसको शब्दों का परिधान पहनाइए।
 
काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी
लेखनी छुप के आंसू बहाती रही
उनको रखने को गंगाजली चाहिए।
 
राजमहलों की कालीनों में खो गया
इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी
अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए।
 
भूख के प्रश्न हल कर रहा जो, उसे
ऐसे भूले पथिक को, पतित पंक से
खींच कर, कर्म के पंथ पर लाइए।
 
कोई भी तो नहीं दूध का है धुला
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