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|संग्रह=सुकून की तलाश / शमशेर बहादुर सिंह
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अपने दिल का हाल यारो, हम किसी से क्या कहें;
 
कोई भी ऎसा नहीं मिलता जिसे अपना कहें।
 
हो चुकी है जब ख़त्म अपनी ज़िन्दगी की दास्ताँ
 
उनकी फ़रमाइश हुई है, इसको दोबारा कहें!
 
आज इक ख़ामोश मातम-सा हमारे दिल में है:
 
ख़ाब के से दिन हैं, वर्ना हम इसे जीना कहें।
 
यास! दिल को बांध, सर पर जल्द साया कर, जुनूँ
 
दम नहीं इतना जो तुमसे साँस का धोका कहें।
 
देखकर आख़ीर वक़्त उनकी मौहब्बत की नज़र
 
हम को याद आया वो कुछ कहना जिसे शिकवा कहें।
 
उनकी पुरहसरत निगाहें देख कर रहम आ गया
 
वर्ना जी में था कि हम भी हँस के दीवाना कहें।
 
काफ़िले वालो, कहाँ जाते हो सहरा की तरफ़,
 
आओ बैठो तुमसे हम मजनूँ का अफ़साना कहें।
 
मुश्कबू-ए-जुल्फ़ उसकी, घेर ले जिस जा हमें,
 
दिल ये कहता है, उसी को अपना काशाना कहें।
('''रचनाकाल : 1935)'''
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