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हिचकते औ' होते भयभीतहुई थी मदिरा मुझको प्राप्‍त
सुरा को जो करते स्‍वीकारनहीं, पर, थी वह भेंट, न दान,
उन्‍हें वह मस्‍ती का उपहारअमृत भी मुझको अस्‍वीकार
हलाहल बनकर देता मारअगर कुंठित हो मेरा मान;
:::मगर जो उत्‍सुक-मन, झुक-झूमदृगों में मोती की निधि खोल
:::हलाहल पी जाते सह्लादचुकाया था मधुकण का मोल,
:::उन्‍हें इस विष में होता प्राप्‍तहलाहल यदि आया है यदि पास
:::अमर मदिरा हृदय का मादक स्‍वाद।लोहू दूँगा तोल!
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