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रात को जीत तो सकता नहीं लेकिन ये चराग
कम से कम रात का नुकसान बहुत करता है
 
आज कल अपना सफर तय नहीं करता कोई
हाँ सफर का सर-ओ-सामान बहुत करता है
 
अब ज़बाँ खंज़र-ए-कातिल की सना करती है
हम वो ही करते है जो खल्त-ए-खुदा करती है
 
 
हूँ का आलम है गिराफ्तारों की आबादी में
हम तो सुनते थे की ज़ंज़ीर सदा करती है
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