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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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वे आत्‍माजीवी थे काया से कहीं परे,

वे गोली खाकर और जी उठे, नहीं मरे,

:::जब तक तन से चढ़काचिता हो गया राख-घूर,

:::::तब से आत्‍मा

::::::की और महत्‍ता

:::::::जना गए।


उनके जीवन में था ऐसा जादू का रस,

कर लेते थे वे कोटि-कोटि को अपने बस,

:::उनका प्रभाव हो नहीं सकेगा कभी दूर,

:::::जाते-जाते

::::::बलि-रक्‍त-सुरा

:::::::वे छना गए।


यह झूठ कि, माता, तेरा आज सुहाग लुटा,

यह झूठ कि तेरे माथे का सिंदूर छुटा,

:::अपने माणिक लोहू से तेरी माँग पूर

:::::वे अचल सुहागिन

::::::तुझे अभागिन,

:::::::बना गए।
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