चुपचाप चू पड़े जीते!<br />
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सब समुन सुमन मनोरथ अंजलि<br />
बिखरा दी इन चरणों में<br />
कुचलो न कीट-सा, इनके<br />
नीचे विपुला धरणी हैं<br />
दुख भार वहन-सी करती<br />
अपने खारे आँसे आँसू से<br />
करुणा सागर को भरती।<br />
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था आश्वासन के छल में।<br />
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दुक दुख क्या था उनको, मेरा<br />
जो सुख लेकर यों भागे<br />
सोते में चुम्बन लेकर<br />
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नचती है नियति नटी-सी<br />
कुन्दककन्दुक-क्रीड़ा-सी करती<br />
इस व्यथित विश्व आँगन में<br />
अपना अतृप्त मन भरती।<br />
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सन्ध्या की मिलन प्रतिक्षा प्रतीक्षा <br />
कह चलती कुछ मनमानी<br />
ऊषा की रक्त निराशा<br />